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उ॒त या॑सि सवित॒स्त्रीणि॑ रोच॒नोत सूर्य॑स्य र॒श्मिभिः॒ समु॑च्यसि। उ॒त रात्री॑मुभ॒यतः॒ परी॑यस उ॒त मि॒त्रो भ॑वसि देव॒ धर्म॑भिः ॥४॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

uta yāsi savitas trīṇi rocanota sūryasya raśmibhiḥ sam ucyasi | uta rātrīm ubhayataḥ parīyasa uta mitro bhavasi deva dharmabhiḥ ||

पद पाठ

उ॒त। या॒सि॒। स॒वि॒त॒रिति॑। त्रीणि॑। रो॒च॒ना। उ॒त। सूर्य॑स्य। र॒श्मिऽभिः॑। सम्। उ॒च्य॒सि॒। उ॒त। रात्री॑म्। उ॒भ॒यतः॑। परि॑। ई॒य॒से॒। उ॒त। मि॒त्रः। भ॒व॒सि॒। दे॒व॒। धर्म॑ऽभिः ॥४॥

ऋग्वेद » मण्डल:5» सूक्त:81» मन्त्र:4 | अष्टक:4» अध्याय:4» वर्ग:24» मन्त्र:4 | मण्डल:5» अनुवाक:6» मन्त्र:4


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (सवितः) सम्पूर्ण जगत् को उत्पन्न करनेवाले (देव) विद्वन् ! जो आप (उत) निश्चय से (त्रीणि) सूर्य्य, चन्द्रमा और बिजुली नामक (रोचना) प्रकाशकों को (यासि) प्राप्त होते (उत) और (सूर्य्यस्य) सूर्य की (रश्मिभिः) किरणों से (सम्, उच्यसि) उत्तम प्रकार कहते हो (उत) और (उभयतः) दोनों ओर से (रात्रीम्) अन्धकार को (परि, ईयसे) दूर करते हो (उत) और (धर्म्मभिः) धर्म्माचरणों से (मित्रः) मित्र (भवसि) होते हो, वह आप हम लोगों से सत्कार करने योग्य हो ॥४॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्यो ! जो सब का स्वामी, ईश्वर तीन-बिजुली, सूर्य्य और चन्द्रमा रूप बड़े दीपों को रच के सर्वत्र व्याप्त और सब का मित्र हुआ और सूर्य्य आदि को अभिव्याप्त हो और धारण कर के प्रकाशित करता है, वही सब प्रकार पूज्य है अर्थात् उपासना करने योग्य है ॥४॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

हे सवितर्देव ! यस्त्वमुत त्रीणि रोचना यास्युत सूर्य्यस्य रश्मिभिः समुच्यसि। उतोभयतो रात्रीं परीयस उत धर्म्मभिर्मित्रो भवसि स त्वमस्माभिः सत्कर्त्तव्योऽसि ॥४॥

पदार्थान्वयभाषाः - (उत) अपि (यासि) प्राप्नोषि (सवितः) सकलजगदुत्पादक (त्रीणि) सूर्य्याचन्द्रविद्युदाख्यानि (रोचना) प्रकाशकानि (उत) (सूर्य्यस्य) (रश्मिभिः) किरणैः (सम्) (उच्यसि) वदसि (उत) (रात्रीम्) (उभयतः) (परि, ईयसे) (उत) (मित्रः) सखा (भवसि) (देव) विद्वन् (धर्मभिः) धर्म्माचरणैः ॥४॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्या ! यस्सर्वेश्वरस्त्रीन् विद्युत्सूर्य्याचन्द्रान् महतो दीपान्निर्माय सर्वत्र व्याप्तः सर्वस्य सुहृत् सन् सूर्य्यादीनभिव्याप्य धृत्वा प्रकाशयति स एव सर्वथा पूज्योऽस्ति ॥४॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे माणसांनो! सर्वांचा स्वामी असलेल्या ईश्वराने विद्युत, सूर्य व चंद्रमारूपी तीन मोठे दीप निर्माण केलेले आहेत. तो सर्वत्र व्याप्त असून सर्वांचा मित्र आहे. सूर्य इत्यादीमध्येही व्याप्त होऊन धारण करून प्रकाशित करतो. तोच सर्वांचा पूज्य आहे. अर्थात, उपासना करण्यायोग्य आहे. ॥ ४ ॥